Friday, January 20, 2012

सुबह जरा कुछ पल प्रार्थना के जी लें...!




सुबह जरा कुछ पल प्रार्थना के जी लें...!
प्रस्तुतकर्ता अनुपमा पाठक at 17 जुलाई 2010

यह कविता भी आंसुओं के साथ लिखी गयी अभी अभी..... प्रेरणा है कहीं से जो आंसुओं में भी प्रार्थना के फूल और एक भली सी मुस्कान वाली सुन्दर छवि जड़ रही है:
रुदन कभी कभी अदृश्य वेदना से भी अनुप्राणित होता है....अव्याख्येय....ऐसे में कविता आंसू पोछने हेतु रुमाल का काम करती है! कहीं एक पल के लिए भी अगर शब्दों को पढ़ कोई मुस्कुराये तो कविता ने अपना काम कर लिया....



सुबह जरा कुछ पल प्रार्थना के जी लें
सुधापान का अवसर होगा कल जरूर,
आज खुशी-खुशी हलाहल पी लें

इतना विस्तार मिले
धरती छोटी पड़ जाए
कविता हमारी नील गगन की
सीमा तय कर आए!
क्षितिज पर जहाँ
धरती और गगन मिले
वहाँ एक रोज़ मेरी कविता
पूर्ण सौंदर्य के साथ खिले!!

संकुचित मानसिकता से मुक्त है राही अगर,
तो दूर तलक जाता है...
हृदय कैसे-कैसे अद्भुत सफ़र तय कर आता है...
धरा का सारा स्नेह आँचल में समेट जी लें
सुधापान का अवसर होगा कल जरूर,
आज खुशी-खुशी हलाहल पी लें

इतना प्यार मिले
दामन छोटा पड़ जाए
जितना पायें औरों से
उससे कहीं बढ़कर प्यार लुटाए!
हर निर्मल हृदय की
मनोकामनाएं सच हो खिलें
भले कुछ टहनियां टूटें,
पर जड़े कभी न हिलें!!

सुबह जरा कुछ पल प्रार्थना के जी लें
सुधापान का अवसर होगा कल जरूर,
आज खुशी-खुशी हलाहल पी लें ..

Friday, December 23, 2011

जिंदगी क्या चीज़ है ..




प्रस्तुतकर्ता अनुपमा पाठक at २६ अक्तूबर २०१०


>जिंदगी क्या चीज़ है!


स्कूल के अंतिम दिनों में रचित एक कविता ...करीब १० वर्ष बीत गए हैं अब, पर आज भी याद आई तो नयी सी ही लगी!!!



बीत जाती है जब
तब
पता चलता है
जिंदगी क्या चीज़ है!
टूटने लगती है जब
साँसों की डोर
तब एहसास होता है
वह
कितनी अज़ीज है!


जब घिरे हुए हों अंजानो से
तब पता चलता है
पहचाने चेहरों
के बीच होना क्या चीज़ है!
जगह छूटती है
तब एहसास होता है
अपने आसमान तले
अपनी ज़मीन
कितनी अज़ीज है!


दुःख से भारी हो मन
तब पता चलता है
मुस्कान का
खिल आना क्या चीज़ है!
आँखों में जो बूंदें है
उनका एहसास
हमें तमाम
खिलखिलाहटों से भी
अज़ीज है!


जब वेदनाएं
प्रबल हो उठती हैं
तब पता चलता है
बंदगी क्या चीज़ है!
हाथ जोड़े
घुटनों के ब़ल बैठ
"उसकी" आराधना में लीन-
ये छवि
चेतना को
सबसे अज़ीज है!


जब ये हवाएं
सबकुछ
सुखा ले जाती हैं
तब पता चलता है
पाँव तले
घास की नमी क्या चीज़ है!


जब रोने का मन हो..
तो, रो लेना दोस्तों
हंसने की कोशिश में
रोये जा रहे हैं हम,
ये सोच,
कि अपनी तो है,
पर-
हर मोड़ पे जिंदगी
कितनी जुदा-जुदा
कितनी अजीब है!


बीत जाती है जब
तब
पता चलता है
जिंदगी क्या चीज़ है!
टूटने लगती है जब
साँसों की डोर
तब एहसास होता है
वह
कितनी अज़ीज है!



अँधेरा है तो क्या हुआ.. दीप जलते हैं ..





प्रस्तुतकर्ता अनुपमा पाठक at १० नवम्बर २०१०


अँधेरा है तो क्या हुआ.. दीप जलते हैं!


एक मुस्कुराहट क्या कुछ नहीं खिला देती
जुदा जुदा राहियों को मंजिल है मिला देती!


चलते हुए कितने ही दीप जलते हैं
सुन्दर सपने.. हृदयों में पलते हैं
साझे सपनों का इन्द्रधनुष है खिला देती
अठखेलियाँ करती हवा लौ को है हिला देती!


वसुधा की गोद में क्या क्या खेल चलते हैं
समय निर्धारित है अवसान का.. फिर भी हम मचलते हैं
क्षणिकता के सौंदर्य को कीर्ति है दिला देती
जलती हुई दीपमालिका बुझी आस है खिला देती!


यूँ ही नहीं अरमान पलते हैं
अँधेरा है तो क्या हुआ.. दीप जलते हैं
गंतव्य स्पष्ट हो तो संकल्पशक्ति जीत है दिला देती
जिजीविषा मुरझाती कली को भी है खिला देती!


जुदा जुदा राहियों को मंजिल है मिला देती
एक मुस्कुराहट क्या कुछ नहीं खिला देती!

"मैं" की लड़ाई थमेगी ..





प्रस्तुतकर्ता अनुपमा पाठक at २२ नवम्बर २०१०


"मैं" की लड़ाई थमेगी...!



" मेरे होने
न होने से
क्या अंतर है
पड़नेवाला!
वैसे ही तो
होता रहेगा
बारी बारी से
अँधेरा उजाला!
जिंदगी
एक पल के लिए भी
न थमेगी...
अगले ही क्षण
फिर
महफ़िल जमेगी! "


ये एहसास
जीते जी
हो जाये,
तो क्या कहना!
सुकून देगा
ठहरी हुई
संतप्त
जलधारा का बहना!
अहंकार
मिट जाएगा
"मैं" की लड़ाई थमेगी...
कुछ बादल बरसेंगे
फिर
निश्चित बात बनेगी!

प्रत्युत्तर में तू कब तक चुप रहने वाली है ..





प्रस्तुतकर्ता अनुपमा पाठक at २७ नवम्बर २०१०


प्रत्युत्तर में तू कब तक चुप रहने वाली है!



प्रतीक्षारत नयनों में
आशा की लाली है!
क्या हुआ जो दूर तक
फैली रात काली है!!


हम तुम्हें बहुत चाहते हैं,
ऐ! जिंदगी...
प्रत्युत्तर में तू कब तक
चुप रहने वाली है!
तुम्हे हंसना भी होगा
गाना भी होगा...
सुर ताल में बज रही
समय की ताली है!


सारे सितारे नयनों में
जो समा लिए...
आसमान का विस्तार
कितना खाली है!
तू झूम रही है धरा पर
तो देख...
कितना मंत्रमुग्ध सा
चमन का माली है!


मानव मस्तिष्क
जाने क्या ढूँढ रहा...
अंतरिक्ष की कैसी
परिकल्पनाएं पाली है!
हृदय अब भी तो
माटी से ही है जुड़ा...
चन्दन पुष्पों से सजी
पूजा की थाली है!


प्रतीक्षारत नयनों में
आशा की लाली है!
क्या हुआ जो दूर तक
फैली रात काली है!!


पावन एक ध्येय चाहिए ..






प्रस्तुतकर्ता अनुपमा पाठक at ५ दिसम्बर २०१०


पावन एक ध्येय चाहिए!!


बहती रहे कविता
सरिता की तरह
बने यह
कई लोगों के लिए
जुड़ने की वजह
मानव जीवन को
और क्या
श्रेय चाहिए!
जीने के लिए बस हमें
पावन एक
ध्येय चाहिए!!


अकेले
चले थे हम
शब्दों की
मशाल लेकर!
मिले राह में हमें
ऐसे भी लोग
जो
इस ठहराव में
स्वयं
गति की पहचान हैं;
सजाये शब्द हमने
उनसे ही
हौसलों की ताल लेकर!
इस ताल पे देखो अब
कितने भाव नाच उठते हैं
आपकी आवाज़ जुड़ी
तो कितने ही छन्द
स्वयं
कविता से आ जुड़ते हैं;
ऐसे ही चलें हम
स्वच्छ मन
और कुछ सवाल लेकर!
साथ
अनेकानेक कड़ियाँ
जुड़ती जाए
और उत्तर की भी
सम्भावना जन्मे;
स्वस्थ विचारों का
आदान प्रदान हो
समझ की
वृहद् थाल लेकर!
चलते
चलें हम
शब्दों की
मशाल लेकर!


बहती रहे कविता
सरिता की तरह
बने यह
कई लोगों के लिए
जुड़ने की वजह
मानव जीवन को
और क्या
श्रेय चाहिए!
जीने के लिए बस हमें
पावन एक
ध्येय चाहिए!!

एक संभावित तस्वीर ..





प्रस्तुतकर्ता अनुपमा पाठक at ६ दिसम्बर २०१०


एक संभावित तस्वीर!


नये विचारों का
प्रादुर्भाव हो!
सहज सा
सुन्दर जुड़ाव हो!!
फिर काव्य भी होगा
और
कहानी भी..!
आंसू ही कहेंगे उसे,
जिसे आज-
लोग कह जाते हैं..
आँखों का पानी भी..!!


नया कुछ सृजित हो
निर्मल स्वभाव हो!
जीवन में
सच्चा कोई पड़ाव हो!!
फिर बात बनेगी
हृदय होगा
बिरले सपनों का मानी भी..!
आंसू ही कहेंगे उसे,
जिसे आज-
लोग कह जाते हैं..
आँखों का पानी भी..!!


रुकी रहे कबतक धारा
अब शाश्वत बहाव हो!
सबके प्रति सहिष्णुता
सहज हृदय का भाव हो!!
फिर होंगे हम
सौम्य विनीत
अद्भुत दानी भी..!
आंसू ही कहेंगे उसे,
जिसे आज-
लोग कह जाते हैं..
आँखों का पानी भी..!!


समय की धारा पर
बहती जीवन की नाव हो!
सुख दुःख की आवाजाही को
झेलने का कौतुकपूर्ण चाव हो!!
फिर तो संभव है
अंकित हो जाए
अमिट निशानी भी..!
आंसू ही कहेंगे उसे,
जिसे आज-
लोग कह जाते हैं..
आँखों का पानी भी..!!