Friday, December 23, 2011

जिंदगी क्या चीज़ है ..




प्रस्तुतकर्ता अनुपमा पाठक at २६ अक्तूबर २०१०


>जिंदगी क्या चीज़ है!


स्कूल के अंतिम दिनों में रचित एक कविता ...करीब १० वर्ष बीत गए हैं अब, पर आज भी याद आई तो नयी सी ही लगी!!!



बीत जाती है जब
तब
पता चलता है
जिंदगी क्या चीज़ है!
टूटने लगती है जब
साँसों की डोर
तब एहसास होता है
वह
कितनी अज़ीज है!


जब घिरे हुए हों अंजानो से
तब पता चलता है
पहचाने चेहरों
के बीच होना क्या चीज़ है!
जगह छूटती है
तब एहसास होता है
अपने आसमान तले
अपनी ज़मीन
कितनी अज़ीज है!


दुःख से भारी हो मन
तब पता चलता है
मुस्कान का
खिल आना क्या चीज़ है!
आँखों में जो बूंदें है
उनका एहसास
हमें तमाम
खिलखिलाहटों से भी
अज़ीज है!


जब वेदनाएं
प्रबल हो उठती हैं
तब पता चलता है
बंदगी क्या चीज़ है!
हाथ जोड़े
घुटनों के ब़ल बैठ
"उसकी" आराधना में लीन-
ये छवि
चेतना को
सबसे अज़ीज है!


जब ये हवाएं
सबकुछ
सुखा ले जाती हैं
तब पता चलता है
पाँव तले
घास की नमी क्या चीज़ है!


जब रोने का मन हो..
तो, रो लेना दोस्तों
हंसने की कोशिश में
रोये जा रहे हैं हम,
ये सोच,
कि अपनी तो है,
पर-
हर मोड़ पे जिंदगी
कितनी जुदा-जुदा
कितनी अजीब है!


बीत जाती है जब
तब
पता चलता है
जिंदगी क्या चीज़ है!
टूटने लगती है जब
साँसों की डोर
तब एहसास होता है
वह
कितनी अज़ीज है!



अँधेरा है तो क्या हुआ.. दीप जलते हैं ..





प्रस्तुतकर्ता अनुपमा पाठक at १० नवम्बर २०१०


अँधेरा है तो क्या हुआ.. दीप जलते हैं!


एक मुस्कुराहट क्या कुछ नहीं खिला देती
जुदा जुदा राहियों को मंजिल है मिला देती!


चलते हुए कितने ही दीप जलते हैं
सुन्दर सपने.. हृदयों में पलते हैं
साझे सपनों का इन्द्रधनुष है खिला देती
अठखेलियाँ करती हवा लौ को है हिला देती!


वसुधा की गोद में क्या क्या खेल चलते हैं
समय निर्धारित है अवसान का.. फिर भी हम मचलते हैं
क्षणिकता के सौंदर्य को कीर्ति है दिला देती
जलती हुई दीपमालिका बुझी आस है खिला देती!


यूँ ही नहीं अरमान पलते हैं
अँधेरा है तो क्या हुआ.. दीप जलते हैं
गंतव्य स्पष्ट हो तो संकल्पशक्ति जीत है दिला देती
जिजीविषा मुरझाती कली को भी है खिला देती!


जुदा जुदा राहियों को मंजिल है मिला देती
एक मुस्कुराहट क्या कुछ नहीं खिला देती!

"मैं" की लड़ाई थमेगी ..





प्रस्तुतकर्ता अनुपमा पाठक at २२ नवम्बर २०१०


"मैं" की लड़ाई थमेगी...!



" मेरे होने
न होने से
क्या अंतर है
पड़नेवाला!
वैसे ही तो
होता रहेगा
बारी बारी से
अँधेरा उजाला!
जिंदगी
एक पल के लिए भी
न थमेगी...
अगले ही क्षण
फिर
महफ़िल जमेगी! "


ये एहसास
जीते जी
हो जाये,
तो क्या कहना!
सुकून देगा
ठहरी हुई
संतप्त
जलधारा का बहना!
अहंकार
मिट जाएगा
"मैं" की लड़ाई थमेगी...
कुछ बादल बरसेंगे
फिर
निश्चित बात बनेगी!

प्रत्युत्तर में तू कब तक चुप रहने वाली है ..





प्रस्तुतकर्ता अनुपमा पाठक at २७ नवम्बर २०१०


प्रत्युत्तर में तू कब तक चुप रहने वाली है!



प्रतीक्षारत नयनों में
आशा की लाली है!
क्या हुआ जो दूर तक
फैली रात काली है!!


हम तुम्हें बहुत चाहते हैं,
ऐ! जिंदगी...
प्रत्युत्तर में तू कब तक
चुप रहने वाली है!
तुम्हे हंसना भी होगा
गाना भी होगा...
सुर ताल में बज रही
समय की ताली है!


सारे सितारे नयनों में
जो समा लिए...
आसमान का विस्तार
कितना खाली है!
तू झूम रही है धरा पर
तो देख...
कितना मंत्रमुग्ध सा
चमन का माली है!


मानव मस्तिष्क
जाने क्या ढूँढ रहा...
अंतरिक्ष की कैसी
परिकल्पनाएं पाली है!
हृदय अब भी तो
माटी से ही है जुड़ा...
चन्दन पुष्पों से सजी
पूजा की थाली है!


प्रतीक्षारत नयनों में
आशा की लाली है!
क्या हुआ जो दूर तक
फैली रात काली है!!


पावन एक ध्येय चाहिए ..






प्रस्तुतकर्ता अनुपमा पाठक at ५ दिसम्बर २०१०


पावन एक ध्येय चाहिए!!


बहती रहे कविता
सरिता की तरह
बने यह
कई लोगों के लिए
जुड़ने की वजह
मानव जीवन को
और क्या
श्रेय चाहिए!
जीने के लिए बस हमें
पावन एक
ध्येय चाहिए!!


अकेले
चले थे हम
शब्दों की
मशाल लेकर!
मिले राह में हमें
ऐसे भी लोग
जो
इस ठहराव में
स्वयं
गति की पहचान हैं;
सजाये शब्द हमने
उनसे ही
हौसलों की ताल लेकर!
इस ताल पे देखो अब
कितने भाव नाच उठते हैं
आपकी आवाज़ जुड़ी
तो कितने ही छन्द
स्वयं
कविता से आ जुड़ते हैं;
ऐसे ही चलें हम
स्वच्छ मन
और कुछ सवाल लेकर!
साथ
अनेकानेक कड़ियाँ
जुड़ती जाए
और उत्तर की भी
सम्भावना जन्मे;
स्वस्थ विचारों का
आदान प्रदान हो
समझ की
वृहद् थाल लेकर!
चलते
चलें हम
शब्दों की
मशाल लेकर!


बहती रहे कविता
सरिता की तरह
बने यह
कई लोगों के लिए
जुड़ने की वजह
मानव जीवन को
और क्या
श्रेय चाहिए!
जीने के लिए बस हमें
पावन एक
ध्येय चाहिए!!

एक संभावित तस्वीर ..





प्रस्तुतकर्ता अनुपमा पाठक at ६ दिसम्बर २०१०


एक संभावित तस्वीर!


नये विचारों का
प्रादुर्भाव हो!
सहज सा
सुन्दर जुड़ाव हो!!
फिर काव्य भी होगा
और
कहानी भी..!
आंसू ही कहेंगे उसे,
जिसे आज-
लोग कह जाते हैं..
आँखों का पानी भी..!!


नया कुछ सृजित हो
निर्मल स्वभाव हो!
जीवन में
सच्चा कोई पड़ाव हो!!
फिर बात बनेगी
हृदय होगा
बिरले सपनों का मानी भी..!
आंसू ही कहेंगे उसे,
जिसे आज-
लोग कह जाते हैं..
आँखों का पानी भी..!!


रुकी रहे कबतक धारा
अब शाश्वत बहाव हो!
सबके प्रति सहिष्णुता
सहज हृदय का भाव हो!!
फिर होंगे हम
सौम्य विनीत
अद्भुत दानी भी..!
आंसू ही कहेंगे उसे,
जिसे आज-
लोग कह जाते हैं..
आँखों का पानी भी..!!


समय की धारा पर
बहती जीवन की नाव हो!
सुख दुःख की आवाजाही को
झेलने का कौतुकपूर्ण चाव हो!!
फिर तो संभव है
अंकित हो जाए
अमिट निशानी भी..!
आंसू ही कहेंगे उसे,
जिसे आज-
लोग कह जाते हैं..
आँखों का पानी भी..!!

सरलता की खोज ..



प्रस्तुतकर्ता अनुपमा पाठक at ९ दिसम्बर २०१०


सरलता की खोज!



इस जगत के खेल
सभी निराले हैं!
ऊपर से सब स्वच्छ निर्मल
भीतर से सब काले हैं!
सत्य के मुख पर
जड़े हुए ताले हैं;
हँसना भूल गया है मन
यहाँ सब लोग..
रुलाने वाले है!


आओ सब मिल
खोजें उस सरलता को,
जो अतीत में कहीं
दफन हो गयी!
हमारे भोले-भाले बाल मन की-
कफ़न हो गयी!


नयनो में
कितने सुन्दर सपने पाले हैं!
तब भी अंधकार ही क्यूँ स्पष्ट है
और खोये से उजाले हैं!
प्रसाद के अभाव में
सूनी मंदिर की थालें हैं;
भावविहीन पूजा है
भगवन भी चकित..कहाँ गए वे
जो भक्ति का रूप सजाने वाले हैं!


आओ सब मिल
खोजें उस भावना को,
जो बिछड़ा हुआ
वतन हो गयी!
कब वाष्प बन कर उड़ गयी सरलता-
जमीं रेगिस्तान की तपन हो गयी!!

कविता कभी ख़त्म नहीं होती ..



प्रस्तुतकर्ता अनुपमा पाठक at १३ दिसम्बर २०१०


कविता कभी ख़त्म नहीं होती...!



अनवरत चलता है
भावों का बहना
जी लिए जाते हैं
अनेकानेक शब्द
अक्षरों के मेल में
इसलिए
शायद
कविता कभी
ख़त्म नहीं होती!


आते जाते रहते हैं
कई विम्ब
कुछ ठहर कर
ठोस हो जाते हैं
जीवन के खेल में
इसलिए
शायद
कविता कभी
ख़त्म नहीं होती!


छन छन कर
आज भी आती है चांदनी
देने को कुछ
बेहद सजीव पल
इस रेलमपेल में
इसलिए
शायद
कविता कभी
ख़त्म नहीं होती!


निश्चित
ज्योत जलेगी
हृदय की बाती
आकंठ है डूबी
भावों के तेल में
इसलिए
शायद
कविता कभी
ख़त्म नहीं होती!


समय ..



प्रस्तुतकर्ता अनुपमा पाठक at १८ दिसम्बर २०१०


समय!


वाक्य में विराम सा
विस्मृत किसी नाम सा
गढ़ता नयी कहानी कोई
समय चलायमान रहा!


कब कितने पड़ाव छूटे
कुछ हुए पूरे कुछ सपने टूटे
सारे जोड़ घटाव के बीच
समय ही बलवान रहा!


कितना प्रभु के हैं समीप
कितनी आस्था से जला दीप
आडम्बर के खेल सभी
समय सब पहचान रहा!


बीतते हैं प्रतिपल हम
लिखते हुए हैं आँखें नम
इन आत्मीय उद्गारों में
समय अंतर्ध्यान रहा!


क्या हार क्या जीत
सभी भुलावे के हैं गीत
इनकी कब परवाह उसे
समय गतिमान रहा!


वाक्य में विराम सा
विस्मृत किसी नाम सा
गढ़ता नयी कहानी कोई
समय चलायमान रहा!


वक़्त हो चला है ..



प्रस्तुतकर्ता अनुपमा पाठक at २७ दिसम्बर २०१०


वक़्त हो चला है...!



कहते हुए
सुनते हुए
वक़्त हो चला है
सपने बुनते हुए
अब चलने की बारी है
गति और विश्वास साथ हों
फिर निश्चित ही
जीत हमारी है!


हँसते हुए
रोते हुए
वक़्त हो चला है
साँसे खोते हुए
अब संभलने की बारी है
बीतती हुई जिंदगी में
दो पल जी लेने की
आस्था हमारी है!


सोते हुए
जागते हुए
वक़्त हो चला है
बेवजह भागते हुए
अब समझने की बारी है
अंधी दौड़ में
यूँ शामिल होना
भूल हमारी है!

Thursday, December 22, 2011

मिल जाएगा प्रेम यहीं...


प्रस्तुतकर्ता अनुपमा पाठक at २४ दिसम्बर २०१०


मिल जाएगा प्रेम यहीं...!



मिलते हैं धरती और गगन जहाँ
वह क्षितिज ये नहीं
प्रेम पल्लवित होता है प्रतिपल जहाँ
वह चमन ये नहीं
स्वार्थ के कांटे उग आये हैं यहाँ वहाँ
खो गयी अस्मिता कहीं
आज किसी को किसी से प्रेम नहीं!!!


मनुष्यता की सुगंध बिखरी हो जहाँ
वहाँ होते नित उत्पात नहीं
प्रेम बाँध लेता है पल में ही सबको
यहाँ कहीं कोई पक्षपात नहीं
झुक गयी है कमर हौसलों की यहाँ
खो गयी कविता कहीं
आज किसी को किसी से प्रेम नहीं!!!


मिलते मिलते मिल जायेगी मंजिल यहाँ
संभावनाओं की कोई सीमा नहीं
प्रेम अंकुरित होगा स्वाभाविक रूप से
नफ़रत ने कभी मैदान जीता नहीं
खोजते रहने से मिल जायेगी भीतर ही
खो गयी इंसानियत कहीं
मिले वह मिल जाएगा प्रेम यहीं!!!


एक किरण ..



प्रस्तुतकर्ता अनुपमा पाठक at २९ दिसम्बर २०१०


एक किरण!


चुपचाप
थाह रहे थे हम
क्या कहता है तम
इस निस्तब्धता में
क्या रहस्य
खोज पायेंगे हम!


तभी
अँधेरा हुआ कम
कुछ वाचाल हुआ तम
और सहज ही कह चला
सकल प्रश्नों का हल है
एक किरण!


किरण-
जिसका मात्र आगमन
तोड़े अन्धकार का भरम
आबद्ध हो जाये श्रृंखला
प्रमुदित हो
झूमे सकल चमन!


किरण-
जो अंक में समेट ले तम
सुनहरा करे वातावरण
और समा जाए अंतस में
तो बन जाएँ स्वयं
किरण के वाहक हम!


ऐसे ही
बनें प्रकाशपुंज हम
लिए झोली में औरों के भी गम
और गतिमान रहे जीवन
फिर रहस्य
खोज लायेंगे हम!

नव प्रभात सुखद रहे ..

प्रस्तुतकर्ता अनुपमा पाठक at २९ दिसम्बर २०१०


नव प्रभात सुखद रहे! !


तिथि बदलती है बस
वक्त कहाँ बदलता है
वैसे ही पुराने ढ़र्रे पर
जीवन चलता रहता है!

एक सुबह का आगमन
एक संध्या की विदाई
वही पुराना सिलसिला
चक्रवत चलता रहता है!

सदियों के इस मेले में
एक वर्ष की क्या बिसात
प्रचंड अग्नि की लपटों में
जीवन जलता रहता है!

समय जो बीत रहा है
वह लौट नहीं पाएगा
अंत आखिर होना ही है
दिन ढ़लता रहता है!

बीत रहा जो वर्ष
वह दे जाए आशीष
नव प्रभात सुखद रहे
सपना पलता रहता है!


चलते चलते इन राहों में...

प्रस्तुतकर्ता अनुपमा पाठक at २० दिसम्बर २०१०

चलते चलते इन राहों में...!


चलते चलते
इन राहों में
दो प्रेम की बातें
कर लें!

न मिलेगा
ये अवसर फिर
एक दूजे की पीर
हर लें!

संध्याबेला आ जायेगी
विदा का सन्देश लिए
भावसुधा का प्याला
भर लें!

सहज प्रेम और भक्ति से
संभव है
हम यह भवसागर
तर लें!

चलते चलते
इन राहों में
दो प्रेम की बातें
कर लें!

यही पूजन है



प्रस्तुतकर्ता अनुपमा पाठक at २२ नवम्बर २०१०

यही पूजन है!


खुले दिल से
सबका स्वागत हो
सबको स्थान मिले
हो सहर्ष दान...
विस्तार इतना हो-
जितना स्वयं
धरती आसमान...
यही पूजन है!

रहे प्रस्तुत सेवार्थ
जितनी जिसकी ताकत हो
सबके दिल हों खिले
इस अनुभूति को पहचान...
क्या गम क्या खुशी-
सब गले लगाएं
सबको अपना जान...
यही पूजन है!

बाँटीं जाएँ खुशियाँ
मौत जीवन का शरणागत हो
निर्द्वंद निर्भीक हों सिलसिले
उदित होते रहें दिनमान...
यह एहसास हो-
सब हैं एक
एक ही मालिक की संतान...
यही पूजन है!